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Question Numbers: 45-47
विद्वानों का यह कथन बहुत ठीक है कि नम्रता ही स्वतन्त्रता की धात्री या माता है। लोग भ्रमवश अहंकार-वृत्ति को उसकी माता समझ बैठते हैं, पर वह उसकी सौतेली माता है जो उसका सत्यानाश करती है। चाहे यह सम्बन्ध ठीक हो या न हो, पर इस बात को सब लोग मानते हैं कि आत्मसंस्कार के लिए थोड़ी-बहुत मानसिक स्वतन्त्रता परम आवश्यक है- चाहे उस स्वतन्त्रता में अभिमान और नम्नता दोनों का मेल हो और चाहे वह नम्रता से ही उत्पन्न हो। यह बात तो निश्चित है कि जो मनुष्य मर्यादापूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहता है, उसके लिए वह गुण अनिवार्य है, जिससे आत्मनिर्भरता आती है और जिससे अपने पैरों के बल खड़ा होना आता है। युवा को यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि उसकी आकांक्षाएँ उसकी योग्यता से कहीं बढ़ी हुई हैं | उसे इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह अपने बड़ों का सम्मान करें, छोटों और बराबर वालों से कोमलता का व्यवहार करें। ये बातें आत्म-मर्यादा के लिए आवश्यक हैं। यह साया संसार, जो कुछ हम हैं और जो कुछ हमारा है । हमारा शरीर, हमारी आत्मा, हमारे कर्म, हमारे भोग, हमारे घर की और बाहर की दशा, हमारे बहुत से अवगुण और थोड़े गुण सब इसी बात की आवश्यकता प्रकट करते हैं कि हमें अपनी आत्मा को नम्न रखना चाहिए । नम्रता से मेरा अभिप्राय दब्बूपन से नहीं है जिसके कारण मनुष्य दूसरों का मुँह ताकता है; जिससे उसका संकल्प क्षीण और उसकी प्रज्ञा मन्द हो जाती है, जिसके कारण आगे बढ़ने के समय भी वह पीछे रहता है और अवसर पड़ने पर चटपट किसी बात का निर्णय नहीं कर सकता। मनुष्य का बेड़ा अपने ही हाथ में है, उसे वह चाहे जिधर लगाये। सच्ची आत्मा वही है जो प्रत्येक दशा में, प्रत्येक स्थिति के बीच, अपनी राह अपने आप निकालती है। अब तुम्हें क्या करना चाहिए, इसका ठीक-ठीक उत्तर तुम्हीं को देना होगा, दूसरा कोई नहीं दे सकता। कैसा भी विश्वासपात्र मित्र हो, तुम्हे! इस काम को वह अपने ऊपर नहीं ले सकता। हम अनुभवी लोगों की बातों को आदर के साथ सुनें, बुद्धिमानों की सलाह को कृतज्ञतापूर्वक मानें, पर इस बात को निश्चित समझकर कि हमारे कामों से ही हमारी रक्षा व हमारा पत़न होगा, हमें अपने विचार और निर्णय की स्वतन्त्रता को दृढ़तापूर्वक बनाये रखना चाहिए। जिस पुरुष की दृष्टि सदा का नीची रहती है, उसका सिर कभी ऊपर नहीं होगा। नीची दृष्टि रखने से यद्यपि रास्ते पर रहेंगे, पर इस बात को न देखेंगे कि यह रास्ता कहाँ ले जाता है। चित्त की स्वतन्त्रता का मतलब चेष्टा की कठोरता या प्रकृति की उग्रता नहीं है। अपने व्यवहार में कोमल रहो और अपने उद्देश्यों को उच्च रखो, इस प्रकार नम्र और उच्चाशय दोनों बनो। अपने मन को कभी मरा हुआ न रखो। जितना ही जो मनुष्य अपना लक्ष्य ऊपर रखता है, उतना ही उसका तीर ऊपर जाता है।
विद्वानों का यह कथन बहुत ठीक है कि नम्रता ही स्वतन्त्रता की धात्री या माता है। लोग भ्रमवश अहंकार-वृत्ति को उसकी माता समझ बैठते हैं, पर वह उसकी सौतेली माता है जो उसका सत्यानाश करती है। चाहे यह सम्बन्ध ठीक हो या न हो, पर इस बात को सब लोग मानते हैं कि आत्मसंस्कार के लिए थोड़ी-बहुत मानसिक स्वतन्त्रता परम आवश्यक है- चाहे उस स्वतन्त्रता में अभिमान और नम्नता दोनों का मेल हो और चाहे वह नम्रता से ही उत्पन्न हो। यह बात तो निश्चित है कि जो मनुष्य मर्यादापूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहता है, उसके लिए वह गुण अनिवार्य है, जिससे आत्मनिर्भरता आती है और जिससे अपने पैरों के बल खड़ा होना आता है। युवा को यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि उसकी आकांक्षाएँ उसकी योग्यता से कहीं बढ़ी हुई हैं | उसे इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह अपने बड़ों का सम्मान करें, छोटों और बराबर वालों से कोमलता का व्यवहार करें। ये बातें आत्म-मर्यादा के लिए आवश्यक हैं। यह साया संसार, जो कुछ हम हैं और जो कुछ हमारा है । हमारा शरीर, हमारी आत्मा, हमारे कर्म, हमारे भोग, हमारे घर की और बाहर की दशा, हमारे बहुत से अवगुण और थोड़े गुण सब इसी बात की आवश्यकता प्रकट करते हैं कि हमें अपनी आत्मा को नम्न रखना चाहिए । नम्रता से मेरा अभिप्राय दब्बूपन से नहीं है जिसके कारण मनुष्य दूसरों का मुँह ताकता है; जिससे उसका संकल्प क्षीण और उसकी प्रज्ञा मन्द हो जाती है, जिसके कारण आगे बढ़ने के समय भी वह पीछे रहता है और अवसर पड़ने पर चटपट किसी बात का निर्णय नहीं कर सकता। मनुष्य का बेड़ा अपने ही हाथ में है, उसे वह चाहे जिधर लगाये। सच्ची आत्मा वही है जो प्रत्येक दशा में, प्रत्येक स्थिति के बीच, अपनी राह अपने आप निकालती है। अब तुम्हें क्या करना चाहिए, इसका ठीक-ठीक उत्तर तुम्हीं को देना होगा, दूसरा कोई नहीं दे सकता। कैसा भी विश्वासपात्र मित्र हो, तुम्हे! इस काम को वह अपने ऊपर नहीं ले सकता। हम अनुभवी लोगों की बातों को आदर के साथ सुनें, बुद्धिमानों की सलाह को कृतज्ञतापूर्वक मानें, पर इस बात को निश्चित समझकर कि हमारे कामों से ही हमारी रक्षा व हमारा पत़न होगा, हमें अपने विचार और निर्णय की स्वतन्त्रता को दृढ़तापूर्वक बनाये रखना चाहिए। जिस पुरुष की दृष्टि सदा का नीची रहती है, उसका सिर कभी ऊपर नहीं होगा। नीची दृष्टि रखने से यद्यपि रास्ते पर रहेंगे, पर इस बात को न देखेंगे कि यह रास्ता कहाँ ले जाता है। चित्त की स्वतन्त्रता का मतलब चेष्टा की कठोरता या प्रकृति की उग्रता नहीं है। अपने व्यवहार में कोमल रहो और अपने उद्देश्यों को उच्च रखो, इस प्रकार नम्र और उच्चाशय दोनों बनो। अपने मन को कभी मरा हुआ न रखो। जितना ही जो मनुष्य अपना लक्ष्य ऊपर रखता है, उतना ही उसका तीर ऊपर जाता है।
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