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Question Numbers: 5-9
अधोलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा प्रश्नों के उत्तर इस गद्यांश के आधार पर दीजिए।
प्रकृति ने मानव जीवन को बहुत सरल बनाया है, किन्तु आज का मानव अपने जीवन-काल में ही पूरी दुनिया की सुख-समृद्धि बटोर लेने के प्रयास में उसको जटिल बनाता जा रहा है। इस जटिलता के कारण संसार में धनी-निर्धन, सत्ताधीश-सत्ताच्युत, संतानवान- निस्संतान सभी सुख-शान्ति की चाह तो रखते हैं, किन्तु राह पकड़ते हैं आह भरने की, मरू-मरीचिका के मैदान में जल की, धधकती आग में शीतलता की चाह रखते हैं। विद्वानों का विचार है कि संसार में सुख का मार्ग है - आत्मसंयम। किन्तु मानव इस मार्ग को भूलकर सांसारिक पदार्थों में, इन्द्रिय विषयों की प्राप्ति में आनन्द ढूँढ़ रहा है। परिणामतः दुःख के सागर में डूबता जा रहा है। आत्मसंयम का मार्ग अपने में बहुत स्पष्ट है, उसकी उपादेयता किसी भी काल में कम नहीं होती। इन्द्रिय विषयों का संयम ही आत्मसंयम है। भौतिक पदार्थों के अ्रति इन्द्रियों का प्रबल आकर्षण मानवीय दुःखों का मूल कारण माना गया है। उपभोक्तावादी संस्कृति के फैलाव से यह आकर्षण तीव्र से तीव्रतर होता जा रहा है। पर ऐसी स्थिति में याद रखना आवश्यक है कि ये भौतिक पदार्थ सुख तो दे सकते हैं, आनन्द नहीं। आनन्द का निर्झर तो आत्मसंयम से फूटता है| उसकी मिठास अनिर्वचनीय और अनुपम होती है | इस मिठास के सम्मुख धत-संपत्ति, सता, सौंदर्य का सुख, सागर के खारे पानी जैसा लगने लगता है।
अधोलिखित गद्यांश को ध्यान से पढ़िए तथा प्रश्नों के उत्तर इस गद्यांश के आधार पर दीजिए।
प्रकृति ने मानव जीवन को बहुत सरल बनाया है, किन्तु आज का मानव अपने जीवन-काल में ही पूरी दुनिया की सुख-समृद्धि बटोर लेने के प्रयास में उसको जटिल बनाता जा रहा है। इस जटिलता के कारण संसार में धनी-निर्धन, सत्ताधीश-सत्ताच्युत, संतानवान- निस्संतान सभी सुख-शान्ति की चाह तो रखते हैं, किन्तु राह पकड़ते हैं आह भरने की, मरू-मरीचिका के मैदान में जल की, धधकती आग में शीतलता की चाह रखते हैं। विद्वानों का विचार है कि संसार में सुख का मार्ग है - आत्मसंयम। किन्तु मानव इस मार्ग को भूलकर सांसारिक पदार्थों में, इन्द्रिय विषयों की प्राप्ति में आनन्द ढूँढ़ रहा है। परिणामतः दुःख के सागर में डूबता जा रहा है। आत्मसंयम का मार्ग अपने में बहुत स्पष्ट है, उसकी उपादेयता किसी भी काल में कम नहीं होती। इन्द्रिय विषयों का संयम ही आत्मसंयम है। भौतिक पदार्थों के अ्रति इन्द्रियों का प्रबल आकर्षण मानवीय दुःखों का मूल कारण माना गया है। उपभोक्तावादी संस्कृति के फैलाव से यह आकर्षण तीव्र से तीव्रतर होता जा रहा है। पर ऐसी स्थिति में याद रखना आवश्यक है कि ये भौतिक पदार्थ सुख तो दे सकते हैं, आनन्द नहीं। आनन्द का निर्झर तो आत्मसंयम से फूटता है| उसकी मिठास अनिर्वचनीय और अनुपम होती है | इस मिठास के सम्मुख धत-संपत्ति, सता, सौंदर्य का सुख, सागर के खारे पानी जैसा लगने लगता है।
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