सामान्य अर्थों में सहायक संधि देशी राज्यों की सुरक्षा के नाम पर कम्पनी द्वारा दी जाने वाली सैन्य सहायता से संबंधित है पर वास्तव में यह एक व्यापक नीति थी। जिसका उद्देश्य बिना किसी सक्रिय हस्तक्षेप के विभिन्न देशी राज्यों पर यथासंभव अपना प्रभाव स्थापित करना था, साथ ही अपने पूर्ण नियंत्रण वाले क्षेत्रों को सुरक्षित घेरा प्रदान करना था। लॉर्ड वेलेजली ( 1798−1805) ने सहायक संधि की प्रणाली चलाई। अंग्रेज भारत में अंग्रेजी सत्ता की श्रेष्ठता स्थापित करने तथा फ्रांसीसियों के भय को समाप्त करने के उद्देश्य से इस प्रणाली को प्रचलित किया। इस संधि को स्वीकार करने वाले राज्यों के वैदेशिक संबंध अंग्रेजी राज्य के अधीन हो जाते थे, पर उनके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया जाता था। परन्तु यह सिर्फ सैद्धान्तिक था, व्यवहार में हस्तक्षेप प्रत्येक आंतरिक मामले में होता था। - सहायक संधि स्वीकार करने वाले राज्य (1) हैदराबाद के निजाम ( 1798−1800 ), पहला राज्य जिसने सहायक संधि स्वीकार की थी। (2) मैसूर (1799-टीपू सुल्तान की मौत के बाद ), तंजौर अवध (1801, प्रारंभिक रूप 1765 ), पेशवा (बसीन की संधि-31 दिसम्बर, 1802 ), नागपुर के भोंसले ( देवगाँव की संधि-17 दिसम्बर, 1803 ) ग्वालियर के सिंधिया (सुर्जी-अर्जन गाँव की संधि-30 दिसम्बर, 1803 ), इंदौर के होल्कर (राजपुर घाट की संधि -जनवरी 1806: अंतिम संधि ), तथा अंत में पंजाब के शासक दिलीप सिंह के साथ लाहौर की संधि (1846) आदि सहायक संधियाँ अंग्रेजों ने की।