UPSSSC PET 15 Oct 2022 Shift 1 Paper
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Question Numbers: 47-51
निम्नलिखित अनुच्छेद को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गये प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
सत्य की आराधना भक्ति है और भक्ति “सिर हथेली पर लेकर चलने का सौदा” है, अथवा वह ‘हरि का मार्ग' है, जिसमें कायरता की गुंजाइश नहीं है, जिसमें हार नाम की कोई चीज है ही नहीं । वह तो ‘मर कर जीने का मंत्र' है । सब बालक, बड़े, स्त्री, पुरुष चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते, खेलते-कूदते सारे काम करते हुए यह रटन लगाए रहें और ऐसा करते-करते निर्दोष निद्रा लिया करें तो कितना अच्छा हो । यह सत्य रूपी परमेश्वर मेरे लिए रत्न-चिन्तामणि सिद्ध हुआ है । हम सभी के लिए वैसा ही सिद्ध हो । सत्य और अहिंसा का मार्ग जितना सीधा है उतना ही तंग भी, “असि की धार पर चलने के समान” है । नट जिस डोर पर सावधानी से नजर रख कर चल सकता है, सत्य और अहिंसा की डोर उससे भी पतली है । ज़रा चूके कि नीचे गिरे । पल-पल साधना से ही उसके दर्शन होते हैं । लेकिन सत्य के सम्पूर्ण दर्शन तों इस देह से असंभव है । उसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है (क्षणभंगुर) देह द्वारा शाश्वत धर्म का साक्षात्कार सम्भव नहीं होता। अतः अंत में श्रद्धा के उपयोग की आवश्यकता तो रह ही जाती है)। इसी से अहिंसा जिज्ञासु के पल्ले पड़ी । जिज्ञासु के सामने यह सवाल पैदा हुआ कि अपने मार्ग में आने वाले संकटों को सहे या उसके निमित्त जो नाश करना पड़े, वह करता जाए और आगे बढ़े । उसने देखा कि नाश करते चलने पर वह आगे नहीं बढ़ता, दर-का-दर पर ही रह जाता है । संकट सहकर आगे तो बढ़ता है लेकिन पहले ही नाश में उसने देखा कि जिस सत्य की उसे तलाश है वह बाहर नहीं है, बल्कि भीतर है। इसीलिए जैसे-जैसे नाश करता.जाता है वैसे-वैसे वह पीछे रहता जाता है और सत्य दूर हटता जाता है।
निम्नलिखित अनुच्छेद को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गये प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
सत्य की आराधना भक्ति है और भक्ति “सिर हथेली पर लेकर चलने का सौदा” है, अथवा वह ‘हरि का मार्ग' है, जिसमें कायरता की गुंजाइश नहीं है, जिसमें हार नाम की कोई चीज है ही नहीं । वह तो ‘मर कर जीने का मंत्र' है । सब बालक, बड़े, स्त्री, पुरुष चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते, खेलते-कूदते सारे काम करते हुए यह रटन लगाए रहें और ऐसा करते-करते निर्दोष निद्रा लिया करें तो कितना अच्छा हो । यह सत्य रूपी परमेश्वर मेरे लिए रत्न-चिन्तामणि सिद्ध हुआ है । हम सभी के लिए वैसा ही सिद्ध हो । सत्य और अहिंसा का मार्ग जितना सीधा है उतना ही तंग भी, “असि की धार पर चलने के समान” है । नट जिस डोर पर सावधानी से नजर रख कर चल सकता है, सत्य और अहिंसा की डोर उससे भी पतली है । ज़रा चूके कि नीचे गिरे । पल-पल साधना से ही उसके दर्शन होते हैं । लेकिन सत्य के सम्पूर्ण दर्शन तों इस देह से असंभव है । उसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है (क्षणभंगुर) देह द्वारा शाश्वत धर्म का साक्षात्कार सम्भव नहीं होता। अतः अंत में श्रद्धा के उपयोग की आवश्यकता तो रह ही जाती है)। इसी से अहिंसा जिज्ञासु के पल्ले पड़ी । जिज्ञासु के सामने यह सवाल पैदा हुआ कि अपने मार्ग में आने वाले संकटों को सहे या उसके निमित्त जो नाश करना पड़े, वह करता जाए और आगे बढ़े । उसने देखा कि नाश करते चलने पर वह आगे नहीं बढ़ता, दर-का-दर पर ही रह जाता है । संकट सहकर आगे तो बढ़ता है लेकिन पहले ही नाश में उसने देखा कि जिस सत्य की उसे तलाश है वह बाहर नहीं है, बल्कि भीतर है। इसीलिए जैसे-जैसे नाश करता.जाता है वैसे-वैसे वह पीछे रहता जाता है और सत्य दूर हटता जाता है।
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