अद्वैताद (संस्कृत शब्द, अर्थात् 'एकत्ववाद' या 'दो न होना') भारत के सनातन दर्शन वेदांत के सबसे प्रभावशाली मतों में से एक है। इस मत के अनुसार, जीव और ब्रह्मा की भिन्नता का कारण माया है, जिसे अविद्या या अज्ञान भी कहते हैं। अद्वैतवाद दर्शन के संस्थापक शंकराचार्य (7- 8वीं सदी) ने ज्ञान अर्जन को मोक्ष का मार्ग बताया तथा निर्गुण ब्रह्मा की उपासना का संदेश दिया। इस मत के अनुसार, आत्म साक्षात्कार या ज्ञान ही मोक्ष है। माध्वाचार्य (13वीं सदी) का विश्वास द्वैतवाद में था और वे आत्मा और परमात्मा को प्रथम मानते थे तथा ये लक्ष्मीनारायण (विष्णु या राम ) के उपासक थे, जबकि रामानुजाचार्य (12वीं सदी) विशिष्टाद्वैत दर्शन का प्रतिपादन किया तथा वे सगुण ईश्वर में विश्वास करते थे। इसी काल में भारत में भक्ति युग का प्रारम्भ हुआ।